चीन के तियानजिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाक़ात हुई.
पिछले साल कज़ान की मुलाक़ात की तुलना में इस बार दोनों नेताओं के बीच ज़्यादा गर्मजोशी दिखाई दी.
शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) सम्मेलन के दौरान हुई इस मुलाक़ात को भले ही ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसका अलग महत्व है.
दोनों नेता ऐसे समय पर मिले हैं, जब वे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ वॉर और एकतरफ़ा फ़ैसलों का सामना कर रहे हैं.
इस मुलाक़ात को रिश्तों को संतुलित करने की सतर्क कोशिश के रूप में देखा जा रहा है.
साझा बयान में भारत और चीन को 'प्रतिद्वंद्वी' की जगह 'विकास में भागीदार' बताया गया है. इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि मतभेदों को विवाद में नहीं बदलना चाहिए.
2020 की गलवान झड़पों के बाद से चले आ रहे तनाव के बीच स्थिरता और भरोसे का संकेत देने की कोशिश की गई.
दोनों नेताओं ने न सिर्फ़ व्यापार और सीमा प्रबंधन पर बातचीत की बल्कि एक बहुध्रुवीय एशिया और बहुध्रुवीय दुनिया जैसा व्यापक दृष्टिकोण सामने रखा.
इसका मतलब साफ़ था कि अकेले अमेरिका को दुनिया का लीडर नहीं समझा जा सकता.
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शिखर सम्मेलन की पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था.
ट्रंप की टैरिफ़ जंग ने भारत को सीमित विकल्पों में रास्ता खोजने पर मजबूर कर दिया है.
सस्ते दामों पर रूस से तेल खरीदने की वजह से सज़ा के तौर पर भारत पर अतिरिक्त टैरिफ़ को अमेरिका ने सही ठहराया है.
हक़ीक़त में यह कदम भारत को और तेजी से यूरेशियाई मंचों की ओर ले जा रहे हैं, जहां अमेरिका की कोई मौजूदगी नहीं है
इंडियाना यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सुमित गांगुली भारतीय विदेश नीति के एक्सपर्ट हैं. बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं, "हां, भारत, चीन और रूस के साथ काम करने की इच्छा का संकेत दे रहा है."
वे कहते हैं, "एक ऐसे समय पर जब ट्रंप की नीतियों की वजह से भारत-अमेरिका संबंध लगभग ख़राब होते जा रहे हैं तो यह रणनीति समझ में आती है. हालांकि इससे कम समय के लिए ही फ़ायदा हो सकता है."
हालांकि भाषा जानबूझकर काफी पेचीदा रखी गई थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह याद दिलाना कि सीमा पर शांति और स्थिरता तरक्की के लिए ज़रूरी है, दोस्ती के संकेत के साथ-साथ एक चेतावनी जैसा भी था.
सीमा पर शांति और बातचीत जारी रहने की बातें ऐसे पेश की गईं, जैसे यह छोटे-छोटे कदम भी बड़ी प्रगति हों.

आर्थिक मोर्चे पर घाटा कम करने और व्यापार बढ़ाने की बातें ज़्यादा उम्मीदों वाली थीं. इनमें ठोस बातें तो नहीं थीं, लेकिन एक राजनीतिक संदेश ज़रूर था कि भारत कारोबार करने के लिए तैयार है, चाहे वह चीन के साथ ही क्यों ना हो, बशर्ते भारत की चिंताओं का ध्यान रखा जाए.
'रणनीतिक स्वायत्तता' का हवाला और 'तीसरे देश के नज़रिए' को ख़ारिज करते हुए भारत ने अमेरिका को साफ़ कर दिया है कि वह उसके दबाव में चीन के साथ अपने रिश्तों को तय नहीं करेगा.
दिल्ली के फ़ोर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में चीन मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद ने साफ़ शब्दों में कहा, "अब समय आ गया है कि भारत और चीन द्विपक्षीय स्तर पर और साथ ही एससीओ के मंच पर मज़बूती से काम करें. तियानजिन में हुई मोदी-शी की मुलाक़ात इसका उदाहरण पेश करती है."
प्रोफ़ेसर अहमद का मानना है कि यह बातचीत आपसी भरोसे को मजबूत कर सकती है.
उन्होंने कहा, "मोदी-शी के बीच बैठक दोनों देशों के बीच भरोसे की कमी को दूर करने की दिशा में एक बड़ा कदम है. वहीं एससीओ के स्तर पर भी तियानजिन बैठक ने क्षेत्रीय मुद्दों पर तालमेल को बढ़ाया है. इसमें अंतरराष्ट्रीय अपराधों से निपटना, संपर्क बढ़ाना और लोगों के बीच रिश्तों को मजबूत करना शामिल है."
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कूटनीति में अक्सर तस्वीरें उतनी ही मायने रखती हैं जितना वास्तविक नतीजे.
जब तियानजिन में पीएम मोदी, शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन एक साथ मंच पर नज़र आए, तो यह तस्वीर सिर्फ़ एससीओ हॉल तक सीमित रहने के लिए नहीं थी.
भारत के लिए यह वक़्त बेहद अहम था. कुछ ही दिन पहले डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के ज्यादातर निर्यात पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ़ लगा दिया था.
एक अमेरिकी फ़ेडरल अपील्स कोर्ट ने टैरिफ़ को 'क़ानून के ख़िलाफ़' बताते हुए अमान्य करार दिया, हालांकि मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने तक यह टैरिफ़ लागू रहेंगे.
ऐसे में मोदी का शी जिनपिंग और पुतिन के साथ मंच पर दिखना, जो दोनों ही अमेरिकी प्रतिबंधों और दबाव के निशाने पर हैं, अपने आप में गहरे प्रतीकात्मक मायने रखता था.
प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद इस क्षण को केवल एक तस्वीर से कहीं ज़्यादा मानते हैं.
उनका कहना है कि ट्रंप का टैरिफ़ काफ़ी अव्यावहारिक है और तियानजिन में मोदी-शी-पुतिन का एक मंच पर आना अमेरिका को जवाब है कि तीनों मिलकर उसकी दबाव वाली नीतियों का मजबूती से सामना कर सकते हैं.

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पीएम मोदी सात साल बाद चीन पहुंचे थे. यह सिर्फ़ एक और क्षेत्रीय बैठक में शामिल होने भर का कार्यक्रम नहीं था.
शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय मुलाकात ने रिश्तों को संतुलित करने का मौका दिया है. वहीं एससीओ बैठक ने भारत को यह दिखाने का मंच दिया है कि अमेरिका के अलावा भी उसके पास साझेदार और अन्य रास्ते मौजूद हैं.
पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने एक लेख में लिखा, "चीन में एससीओ सम्मेलन में मोदी की भागीदारी को किसी रणनीतिक बदलाव की बजाय एक बड़े कूटनीतिक संतुलन बनाने के प्रयास के तौर पर देखा जाना चाहिए."

अमेरिका में अक्सर एससीओ को एक तानाशाह देशों का समूह कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है, लेकिन भारत और अन्य सदस्य देश इस बात से सहमत नहीं हैं.
भारत के लिए इसकी अहमियत दूसरे मायनों में हैं. भारत के लिए यह एक ऐसा मंच है जहां रूस, चीन, मध्य एशियाई देश और अब ईरान तक एक ही मेज़ पर बैठते हैं.
चीन ने इस शिखर बैठक का इस्तेमाल भारत को यह संदेश देने के लिए किया है कि वह उसे 'प्रतिद्वंद्वी' नहीं बल्कि एक 'साझेदार' के तौर पर देखे.
भारत के लिए यह बैठक इस बात की परीक्षा थी कि हर बार होने वाली स्थिरता की बातें क्या एक अधिक भरोसेमंद रिश्ते में बदल सकती हैं.
दिल्ली में लोग हक़ीक़त को समझते हैं. सीमा विवाद अब भी सुलझा नहीं है और चीन के साथ भारत का 99 अरब डॉलर का व्यापार घाटा राजनीतिक सिरदर्द बना हुआ है. बावजूद इसके बातचीत कितनी भी कठिन हो, लेकिन इसे ज़रूरी माना जा रहा है.
विश्लेषक हैपीमोन जैकब कहते हैं, "दूसरा रास्ता क्या है? आने वाले दशकों तक चीन से निपटना भारत की सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती बना रहेगा."
अपनी छोटी शुरुआत छह देशों से करने वाला शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) अब बढ़कर दस सदस्य देशों, दो पर्यवेक्षकों और 14 डायलॉग पार्टनर्स वाला समूह बन चुका है.
आज यह किसी भी क्षेत्रीय संगठन की तुलना में सबसे बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ है. यह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है.
हांगकांग के वरिष्ठ विश्लेषक हेनरी ली का कहना है, "एससीओ के अंदर जो विविधता है, वह सराहनीय है. इसमें अलग-अलग इतिहास, संस्कृतियां, राजनीतिक सिस्टम और विकास के स्तर शामिल हैं."
उनका कहना है, "बावजूद इसके एससीओ ने सहयोग का एक सिस्टम खड़ा किया है जो अपने सदस्य देशों की ज़रूरतों और मौजूदा दौर की परिस्थितियों को दर्शाता है."
वे कहते हैं कि एससीओ एक तरह से दुनिया को यह दिखा रहा है कि अलग-अलग देश मिलकर कैसे काम कर सकते हैं. हालांकि यह अभी पूरा नहीं हुआ है, लेकिन यह साबित कर रहा है कि अगर देश साथ आएं तो आपसी सहयोग की स्थिति को मजबूत किया जा सकता है.
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इस समीकरण में रूस की भूमिका भी कुछ कम अहम नहीं हैं. भारत रूस के सस्ते क्रूड ऑयल का सबसे बड़ा ख़रीदार बन गया है. ऐसा करके भारत ने अपने नागरिकों को महंगाई से बचाया है.
राष्ट्रपति पुतिन के इस साल भारत की यात्रा पर आने की भी ख़बरें हैं. इससे दोनों देशों के बीच संबंध और मज़बूत होंगे.
भारत के लिए रूस सिर्फ़ तेल और हथियारों का आपूर्तिकर्ता ही नहीं हैं. यह स्वायत्तता का प्रतीक है. यह इस बात का सबूत भी है कि नरेंद्र मोदी सरकार अमेरिका के आगे नतमस्तक हुए बिना भी अपने संबंधों में संतुलन बना सकती है.
लेकिन प्रोफ़ेसर गांगुली एक चेतावनी देते हैं. प्रोफ़ेसर गांगुली कहते हैं, "रूस एक कमज़ोर होती शक्ति है और उसकी भौतिक और कूटनीतिक क्षमताएं सीमित हैं."
वे कहते हैं, "यूक्रेन पर आक्रमण की वजह से घरेलू स्तर पर भी रूस को दीर्घकालिक समस्याओं का सामना करना होगा. युद्ध में उसके दस लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और अब रूस उच्च तकनीक, हथियारों के पुर्जों और तेल की बिक्री के लिए बुरी तरह निर्भर है."
उनके नज़रिए में भारत का रूस के क़रीब जाना कोई रोमांस नहीं है बल्कि ज़रूरत है. यह एक ऐसा सहारा है जो अमेरिका के अनिश्चित रिश्तों के समय भारत को अपने हिसाब से चलने की गुंजाइश देता है.
एक मीडिया इंटरव्यू में पूर्व भारतीय राजदूत जतिंद्र नाथ मिश्रा ने इसे और साफ़गोई से कहा, "यह एक बुरा विकल्प है लेकिन सबसे अच्छा विकल्प यही है."
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क्या एससीओ सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए नरेंद्र मोदी की यात्रा और पुतिन की प्रस्तावित दिल्ली यात्रा, अमेरिका के प्रभाव से आगे की व्यवस्था की शुरुआत है?
ऐसा नहीं है. नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग का एक साथ दिखना निश्चित रूप से विकल्प पेश करता है, लेकिन बावजूद इसके भारत की रक्षा, तकनीक और निवेश के क्षेत्र में अमेरिका पर गहरी निर्भरता है.
चीन की आक्रामकता से निपटने के लिए भारत की रणनीति का केंद्र अब भी क्वॉड ही है. लेकिन जो बदल रहा है वह है लहज़ा.
मोदी पहले से ज़्यादा संतुलन साध रहे हैं और किसी भी खांचे में सीमित होने से इनकार कर रहे हैं. प्रोफ़ेसर अहमद तर्क देते हैं कि जो गति मिली है उसे बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए.
प्रोफ़ेसर अहमद कहते हैं, "सबसे अहम यह है कि नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक सम्मेलन व्यवस्था फिर से शुरू हो ताकि द्विपक्षीय रिश्तों को रणनीतिक दिशा मिल सके."
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विडंबना यह है कि ट्रंप उसी बहु-ध्रुवीयता को बढ़ावा दे रहे हैं जिससे वह सबसे ज़्यादा डरते हैं.
भारत पर भारी टैरिफ़ लगाकर वे उसे चीन और रूस के और क़रीब धकेल रहे हैं. अदालत में हारकर वह वैश्विक व्यापार नियमों को फिर से परिभाषित करने का दावा भी खो देते हैं.
सहयोगियों के अधिक क़रीब दिखने के प्रयास में वो अमेरिका के प्रभाव को कम कर रहे हैं. जापान ने अमेरिका में भारी निवेश करने के दबाव के बाद कारोबारी समझौते के लिए वार्ता रद्द कर दी है.
इससे यह पता चलता है कि पारंपरिक रूप से अमेरिका के सहयोगी रहे देश भी अब प्रतिरोध करने लगे हैं.
क्या मोदी को यह साबित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए कि विकल्प मौजूद हैं? भारत अमेरिका को नहीं छोड़ रहा है, कम से कम अभी तो नहीं. दोनों देशों की साझेदारी बहुत विस्तृत और गहरी है.
नरेंद्र मोदी सरकार यह जानती है कि उसके सामने चुनौती किसी एक पक्ष चुनने की नहीं है बल्कि अपने हिसाब से चलने की गुंज़ाइश बनाने की है.
प्रोफ़ेसर गांगुली का कहना है, "भारत की स्थिति आज कठिन है लेकिन जो अधिकतर चुनौतियां भारत के सामने हैं वह उसने ख़ुद पैदा नहीं की हैं. भारत को सिर्फ़ इस बात का दोषी ठहराया जा सकता है कि उसने ट्रंप के अस्थिर व्यवहार और उनकी पूरी तरह लेन-देन पर केंद्रित नीति को समय रहते पूरी तरह से नहीं समझा."
असल में बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि यही मोदी की चीन यात्रा का संदेश है.
विश्लेषक कहते हैं कि यह अमेरिका को याद दिलाना है कि भारत के पास विकल्प हैं और भारत को नतमस्तक होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. भारत ने यह संदेश भी दिया है कि कूटनीतिक स्वायत्तता उसकी विदेश नीति का केंद्र है.
अगर इतिहास डोनल्ड ट्रंप को ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में याद करेगा, जिन्होंने दोस्तों से दूरी बनाकर अमेरिका के पतन को गति दी तो वहीं मोदी को ऐसे नेता के रूप में याद किया जाएगा जिन्होंने दरवाज़े खुले रखे, अपने प्रतिद्वंद्वियों से बातचीत बनाए रखी और भारत की अपने हिसाब से चलने की गुंज़ाइश को ऐसी दुनिया में बनाए रखा जिसे किसी एक शक्ति के अधीन नहीं होना चाहिए.
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