प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी की बैठक हुई. इस बैठक में जाति जनगणना कराने का फ़ैसला लिया गया.
कैबिनेट बैठक में लिए फ़ैसलों की जानकारी देते हुए " प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजनीतिक विषयों की कैबिनेट कमेटी ने यह निर्णय लिया है कि जातियों की गणना को आने वाली जनगणना में सम्मिलित किया जाए."
हैं. इसके अलावा इस कमेटी में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भी इसमें शामिल हैं.
वैष्णव ने कहा कि कांग्रेस ने हमेशा ही जातिगत जनगणना का विरोध किया है.
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क्या कह रहे हैं नेता और राजनीतिक विश्लेषक
ने जाति आधारित जनगणना कराने के फ़ैसले को बहुत बड़ी घोषणा बताया है और कहा है कि इसकी मांग दशकों से की जा रही थी.
योगेंद्र यादव ने कहा, "इसका स्वागत है. हम जैसे लोग जो कई साल से इसकी मांग कर रहे थे लेकिन हम पर कई तरह के आरोप लगाए जा रहे थे. अब उम्मीद है कि लोग कहेंगे कि बात तो ठीक ही कह रहे थे क्योंकि मोदी सरकार ने घोषणा की है."
योगेंद्र यादव ने कहा है कि इसके लिए पीएम मोदी को बधाई बनती है और इससे ज़्यादा बधाई उन लोगों को बनती है जो इस सवाल को लेकर दशकों से संघर्ष कर रहे थे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार के इस फ़ैसले का स्वागत किया है. नीतीश ने कहा है कि इससे जाति के आधार पर लोगों की संख्या का पता लगेगा और उनके लिए योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी.
उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने मोदी सरकार के जातिगत जनगणना कराने के फ़ैसले को ऐतिहासिक बताया है.
मौर्य ने लिखा, "जाति भारतीय राजनीति की सच्चाई है और जातीय जनगणना इसकी धुरी. लोकतंत्र इससे मज़बूत होगा. ज़मीनी राजनीति के धुरंधर नेता मोदी जी इस ज़मीनी सच्चाई से वाक़िफ़ हैं. उन्होंने अपने इस फ़ैसले से देशवासियों का हृदय छू लिया है."
कैबिनेट के इस फ़ैसले के बाद बिहार के उप मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता है.
सरकार बताए समय सीमा- राहुल गांधीकेंद्र सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने का फ़ैसला ऐसे समय में लिया है, जब भारत में हर दस साल में होने वाली आम जनगणना, जो साल 2021 में होनी थी, वह भी नहीं हो पाई है.
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और है, "हमने संसद में कहा था कि हम जातिगत जनगणना करवा के ही मानेंगे, साथ ही आरक्षण में 50% सीमा की दीवार को भी तोड़ देंगे. पहले तो नरेंद्र मोदी कहते थे कि सिर्फ चार जातियां हैं, लेकिन अचानक से उन्होंने जातिगत जनगणना कराने की घोषणा कर दी."
"हम सरकार के इस फैसले का पूरा समर्थन करते हैं, लेकिन सरकार को इसकी टाइमलाइन बतानी होगी कि जातिगत जनगणना का काम कब तक पूरा होगा?"
कांग्रेस प्रवक्ताने भी इस मामले पर एक्स पर प्रतिक्रिया दी है.
जयराम रमेश ने 9 अप्रैल को अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मेलन के प्रस्ताव की कॉपी पोस्ट करते हुए लिखा, "सामाजिक न्याय को लेकर यह बात कांग्रेस के हालिया प्रस्ताव में कही गई थी, जो 9 अप्रैल 2025 को अहमदाबाद में पारित हुआ था. देर आए, दुरुस्त आए."
राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी के नेता और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि जाति जनगणना का मोदी सरकार पहले विरोध कर रही थी, लेकिन अब हमारे ही एजेंडे पर चल रही है.
जातिगत जनगणना पर मोदी कैबिनेट के फ़ैसले पर तेजस्वी ने कहा, "विपक्ष की मांग का सरकार ने विरोध किया था. तब प्रधानमंत्री मोदी ने मना कर दिया था, पार्लियामेंट में भी इनके मंत्री मना कर रहे थे लेकिन सरकार को अब हमारी बात माननी पड़ी है. ये हमारी मांग है और ये हमारी जीत है."
वहीं समाजवादी पार्टी के नेता फ़ख़रुल हसन ने कहा, "बीजेपी जो कहती है और जो करती है उसमें बहुत बड़ा अंतर है. हम जाति गणना पर नज़र रखेंगे और देखेंगे कि यह सही तरीके से किया जाए."
आमतौर पर बीजेपी के नेता जाति जनगणना पर संभल कर प्रतिक्रिया देते रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जाति से ज़्यादा आर्थिक हालात को बेहतर करने की बात कह चुके हैं.
ऐसे में जनगणना में जाति की भी गिनती कराने का फ़ैसला कई लोगों को हैरान भी कर सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "सरकार ने एक आसान रास्ता अपनाया है और उसने विपक्ष से यह मुद्दा छीनकर उसकी धार काटने की कोशिश की है. लेकिन ये नहीं बताया कि जाति आधारित आंकड़े आने के बाद वो इसका क्या करेगी."
उनका कहना है कि बीजेपी के मन में कहीं न कहीं ये टीस है कि वो जो 400 (लोकसभा सीटें) पार करने की बात कर रही थी, वो उसे नहीं मिल पाई.
रशीद किदवई मानते हैं, "पहलगाम के बाद देशभक्ति का जो माहौल है और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर लोग एकजुट हैं. ऐसे में जातिगत गणना की बात कर, हो सकता है कि सरकार बिहार चुनाव के आसपास मध्यावधि चुनाव कराने का फ़ैसला भी कर ले."
बिहार में इसी साल अक्तूबर महीने के आसपास विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार भी इस फ़ैसले के पीछे राजनीतिक मक़सद देखते हैं.
उनका कहना है, "बीजेपी को पता है कि वो अगड़ी जातियों और कुछ अन्य पिछड़े और दलित वोटों के भरोसे चुनाव नहीं जीत सकती है. उसे पिछड़े-दलितों के वोट पाने के लिए दूसरे सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ता है. इसी वोट के लिए उसे पिछड़ी जातियों को साधने की ज़रूरत है."
"बीजेपी को यह भी पता है जिस तरह से पिछड़े और दलितों की आवाज़ मुखर हुई है, उसे बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता. लेकिन केवल गणना कराने से क्या हासिल होगा और इससे मिले आंकड़ों का क्या किया जाएगा यह भविष्य में पता चलेगा."
साल 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले बने विपक्ष के 'इंडिया गठबंधन' ने पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग की थी.
जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जाति आधारित गणना पर सवाल उठा चुके हैं. मोदी ने 'जाति' की जगह ग़रीबी और अमीरी की बात की थी.
उस वक़्त कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस ने फ़ैसला किया है कि कांग्रेस शासित राज्य जनगणना कराएंगे.
इसे विपक्ष की तरफ से बीजेपी के ऊपर एक बड़े दबाव के तौर पर देखा गया.
इस मुद्दे पर विपक्षी दल लगातार बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से देशभर में जातिगत गणना कराने की मांग करते रहे थे.
रशीद किदवई कहते हैं, "जाति जनगणना कराना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. क्या यह इस बात की गारंटी देता है कि लोगों को सत्ता, संसद, नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आबादी के हिसाब से आरक्षण मिलेगा?"
"गिनती कराने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. फर्क तब पड़ेगा जब जाति के आधार पर कुछ दिया जाएगा."
जाति आधारित जनगणना के पीछे एक तर्क दिया जाता है कि 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'.
जाति आधारित गणना नौकरी और शिक्षण संस्थानों जैसी जगहों में 'संख्या के आधार पर हिस्सेदारी' की बात करता है. तर्क यह दिया जाता है कि इससे ज़रूरतमंदों के लिए योजना बनाने में मदद मिलेगी.
जातिगत गणना पर क्या रहा है बीजेपी का रुख़
जाति आधारित जनगणना कराए जाने को लेकर केवल विपक्ष और ख़ासकर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की ओर से ही नहीं बल्कि बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और जेडीयू जैसे सहयोगी दलों की ओर से भी मांग की गई थी.
वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई बार कह चुके हैं कि हिन्दुओं को जाति के नाम पर बाँटने की कोशिश हो रही है.
बिहार में जाति आधारित जनगणना के बाद बीजेपी के कई नेताओं ने आरोप लगाया था कि इस गणना में कई दोष हैं, और इसमें कई जातियों की संख्या सही नहीं बताई गई है.
दरअसल बिहार में साल 2022 में बिहार सरकार ने राज्य में जातिगत सर्वे कराने का फ़ैसला किया था तब बीजेपी भी राज्य सरकार में नीतीश कुमार की साझेदार थी और उसने इसका समर्थन किया था.
लेकिन इस जातिगत सर्वे के आंकड़े साल 2023 में जारी किए गए थे, तब बिहारी में सियासी समीकरण बदल चुका था और नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल के बीच गठबंधन हो चुका था. उसके बाद से ही देशभर में जातिगत जनगणना का मुद्दा सियासी गलियारों में रह रहकर उठता रहा है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार कहते हैं, "बिहार में जातिगत गणना के साथ सामाजिक आर्थिक स्थिति के लिहाज से अहम ज़मीन से जुड़े आंकड़े जारी नहीं किए गए. नीतीश के ऊपर आरजेडी का दबाव था तो जनगणना के आंकड़े आ गए, लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ. इसलिए मुझे लगता है कि केंद्र सरकार के जाति जनगणना कराने के फ़ैसले के पीछे कोई गंभीरता नहीं है "
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना कराने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी.
अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया.
आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.
तब से लेकर भारत सरकार ने नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया है.
लेकिन 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी.
इन दलों ने तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया.
साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन इस सिफ़ारिश को साल 1990 में लागू किया जा सका. इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए थे.
चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए.
आख़िरकार साल 2010 में बड़ी संख्या में सांसदों की मांग के बाद सरकार इसके लिए राज़ी हुई थी.
जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया था कि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की उसकी कोई योजना नहीं है.
इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि 'साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं. इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे ग़लतियों से भरे और अनुपयोगी थे.'
केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी.
2011 में की गई जातिगत जनगणना में मिले आंकड़ों में से महाराष्ट्र की मिसाल देते हुए केंद्र ने कहा कि जहां महाराष्ट्र में आधिकारिक तौर पर अधिसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी में आने वाली जातियों कि संख्या 494 थी, वहीं 2011 में हुई जातिगत जनगणना में इस राज्य में कुल जातियों की संख्या 4,28,677 पाई गई.
साथ ही केंद्र सरकार का कहना था कि जातिगत जनगणना करवाना प्रशासनिक रूप से कठिन है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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