दिसंबर, 1944 की एक शाम क़रीब चार बजे इस्मत चुग़ताई के घर की घंटी बजी. नौकर ने दौड़कर आकर बताया कि बाहर पुलिस खड़ी है.
इस्मत के पति शाहिद बाहर गए. उन्होंने पुलिस वालों से पूछा, 'माजरा क्या है?' पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा- 'हम समन लेकर आए हैं.'
शाहिद ने पूछा- "समन? क्यों और किसके लिए?" पुलिस इंस्पेक्टर ने जवाब दिया, "इस्मत चुग़ताई के लिए. उन्हें सामने लाइए. समन लाहौर से आया है."
इस्मत चुग़ताई ने अपनी आत्मकथा 'माय फ़्रेंड, माय एनेमी' में लिखा, "मैं दरवाज़े तक नंगे पाँव चली आई. मैंने पूछा 'ये किस तरह का समन है?' पुलिसवाले ने कहा, 'आप ख़ुद पढ़ लीजिए'."
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"समन पढ़ने के बाद मुझे अंदाज़ा हुआ कि मुझ पर मेरी कहानी 'लिहाफ़' के लिए अश्लीलता का आरोप लगाया गया है और मुझे जनवरी में लाहौर हाई कोर्ट में हाज़िर होना है."
"मैंने समन लौटाते हुए कहा, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगी."
"पुलिसवाले ने कहा, 'अगर आप ऐसा नहीं करेंगी तो आपको गिरफ़्तार कर लिया जाएगा.' लंबी बहस के बाद मैंने समन की पावती पर दस्तख़त कर दिए."
इस्मत के पास सआदत हसन मंटो का फ़ोन आया कि उन पर भी अश्लीलता का आरोप लगाया गया है और उनका मामला भी इस्मत के साथ उसी दिन उसी अदालत में सुना जाएगा.
इस्मत लिखती हैं, "इस पूरे प्रकरण से मंटो इतने ख़ुश थे मानों उन्हें विक्टोरिया क्रॉस दे दिया गया हो. मैं अंदर से बहुत डरी हुई थी लेकिन मंटो के उत्साह को देखकर मेरा डर जाता रहा. लेकिन उसके बाद मेरे घर गालियों और अपमान से भरे ख़त आने लगे. ये ख़त इतने भद्दे होते थे कि अगर उन्हें किसी लाश के सामने पढ़ा जाता तो वो भी उठ कर भाग खड़ी होती."
इस्मत की ये कहानी 'लिहाफ़', 'अदब-ए-लतीफ़' पत्रिका में सन 1942 में छपी थी.
मुक़दमे में कुछ ख़ास नहीं हुआ. जज ने इस्मत से पूछा, क्या आपने ही ये कहानी लिखी है?
इस्मत ने कहा, 'हाँ.' इसके बाद इस्मत ने अपना सारा समय ताँगे पर बैठकर लाहौर में शॉपिंग करने में बिताया. उनसे नवंबर, 1946 में अदालत में फिर हाज़िर होने के लिए कहा गया.
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इस्मत और मंटो निर्धारित तिथि पर अदालत में फिर हाज़िर हुए. मंटो की जिस कहानी पर अश्लीलता का आरोप लगा था वो थी 'बू.'
इस्मत लिखती हैं, "मंटो के वकील ने गवाह से पूछा- क्या ये कहानी अश्लील है? गवाह ने कहा, 'हाँ.'"
वकील ने पूछा, "इस कहानी में वो कौन सा शब्द है जो अश्लील है?" गवाह का उत्तर था, "छाती." वकील ने जज से कहा, "माय लॉर्ड छाती शब्द अश्लील नहीं है." जज ने कहा, "आप बिल्कुल सही कह रहे हैं."
अगले दिन 'लिहाफ़' पर सुनवाई शुरू हुई. एक गवाह ने कहा कि "वो आशिक़ जमा कर रही है, यह वाक्य अश्लील है." इस्मत के वकील ने पूछा, "आपकी नज़र में 'आशिक़' शब्द अश्लील है या 'जमा करना ?' गवाह ने कहा, 'आशिक़'."
वकील ने कहा, "माय लॉर्ड, 'आशिक़' शब्द कितनी ही कविताओं, नज़्मों और यहाँ तक कि नातों तक में इस्तेमाल किया गया है."
मुक़दमा वहीं बंद कर दिया गया. मंटो और इस्मत दोनों को बरी कर दिया गया.
जज ने इस्मत को अपने चैंबर में बुला कर कहा, "मैंने आपकी सभी कहानियाँ पढ़ी हैं. उनमें से कोई भी अश्लील नहीं है. मंटो की रचनाओं में ज़रूर कुछ गंदगी है."
इस पर इस्मत ने कहा, "लेकिन ये दुनिया भी तो गंदगी से भरी हुई है." ये सुनते ही जज हँसने लगे.
बाद में इस्मत ने 'लिहाफ़' लिखने की पृष्ठभूमि बताते हुए कहा था, "उस ज़माने में महिला समलैंगिकता के बारे में खुले तौर पर बात नहीं होती थी. हम लड़कियों को इस बात का अंदाज़ा ज़रूर था कि इस तरह की कोई चीज़ होती है पर हमें पूरी सच्चाई नहीं पता थी. जब मैंने ये कहानी लिखी तो मैंने इसे सबसे पहले अपनी भाभी को दिखाया जो मेरी ही उम्र की थीं. उन्होंने इस कहानी के कुछ चरित्रों को पहचान लिया और कहने लगीं कि ये फ़लाँ-फ़लाँ हैं. उन्होंने ये कतई नहीं कहा कि ये गंदी कहानी है."
फिर इस्मत ने ये कहानी अपनी एक भतीजी को पढ़ने के लिए दी जो क़रीब 14 साल की थी. उसने इसे पढ़ने के बाद कहा, "ये क्या है? आपकी कहानी मेरे सिर के ऊपर से निकल गई."
इस्मत ने उससे कहा कि "जब तुम बड़ी हो जाओगी तब ये कहानी तुम्हारी समझ में आएगी." सबसे पहले मजनूँ गोरखपुरी ने इसकी समीक्षा लिखी. उसके बाद कृष्ण चंदर और मंटो ने उस पर लेख लिखे.
साल 1915 में जन्मीं इस्मत को उर्दू साहित्य के विद्रोही लेखकों में गिना जाता है. साल 1988 तक जब तक उन्हें अल्ज़ाइमर की बीमारी ने नहीं जकड़ लिया, वो निरंतर लिखती रहीं.
उन्होंने कुल पाँच कहानी संग्रह, सात उपन्यास और कई रेडियो नाटक लिखे. इस बीच उन्होंने अपने पति शाहिद लतीफ़ की तकरीबन 15 फ़िल्मों की कहानियाँ और संवाद भी लिखे.
अलीगढ़ विश्वविद्यालय से पढ़ीं राशिद जहाँ उनकी रोल मॉडल थीं.
'महफ़िल' पत्रिका को दिए इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था, "मेरा परिवार कहा करता था कि मुझे राशिद जहाँ ने बिगाड़ा था. राशिद कहा करती थीं कि जो कुछ भी तुम महसूस करो, तुम्हें उस पर शर्म नहीं आनी चाहिए."

साल 1941 में उन्होंने शाहिद लतीफ़ से शादी की.
मशहूर साहित्यकार उपेंद्रनाथ अश्क ने उर्दू पत्रिका 'आजकल' के 1991 के अंक में लिखा था, "शाहिद गोरे-चिट्टे, अच्छी क़द-काठी के आकर्षक व्यक्ति थे. उनकी तुलना में इस्मत मोटे शीशे का चश्मा और बिना हील की चप्पल पहनती थीं."
"उस ज़माने में कहा जाता था कि शाहिद उनके नाम और प्रसिद्धि की वजह से उनकी तरफ़ आकर्षित हुए थे लेकिन जहाँ तक मैं इस्मत को जानता हूँ, इस्मत ने दिखने में अच्छे युवा शख़्स को अपना दिल दिया था."
इस्मत ने अपने लेख 'कुछ अपने बारे में' शाहिद लतीफ़ के बारे में लिखा था, "शादी से पहले ही मैंने शाहिद से कह दिया था कि मैं बहुत परेशान करने वाली महिला हूँ. तुम मुझसे शादी करके पछताओगे. अपने पूरे जीवन मैं ज़ंजीरें तोड़ती रही हूँ. मुझे किसी ज़ंजीर में बाँधकर नहीं रखा जा सकता."
"आज्ञाकारी और पवित्र महिला होना मेरी फ़ितरत में नहीं है लेकिन शाहिद ने मेरी बात नहीं सुनी. शादी से एक दिन पहले मैंने उसे फिर आगाह किया लेकिन उसने मेरे साथ बराबरी का व्यवहार किया. यही वजह है कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखी रहा."
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अपनी किताब 'अ रेबेल एंड हर कॉज़' में रख़्शंदा जलील लिखती हैं, "इस्मत को बहुत शुरू में ही सही और ग़लत की पहचान करना और जिसे वो सही समझती थीं, उसके बारे बेधड़क बातें करना आ गया था."
"लेकिन उनके अपने जीवनकाल में ही उन्हें एक ऐसी महिला लेखिका माना जाने लगा था जो बोल्ड विषयों पर लिखती थी और किसी भी विषय पर अपनी राय देने से परहेज़ नहीं करती थीं. शायद उनकी लोकप्रियता के कारण उनके साथी लेखकों और आलोचकों ने उन्हें उतनी गंभीरता से नहीं लिया जिसकी वो हक़दार थीं."
उस समय के प्रगतिवादी लेखक इस्मत के लेखन में यथार्थवाद और रोज़मर्रा के जीवन के चित्रण से तो ख़ुश होते थे लेकिन उनके लेखन की जिसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 'सेक्स अपील' कहते थे, उन्हें लगातार परेशान करती थी.
प्रगतिवादी आंदोलन के सशक्त विचारक अली सरदार जाफ़री अपनी किताब 'तरक्कीपसंद अदब' में लिखते हैं, "अगर इस्मत सेक्स और उससे संबंधित विषयों से अपने प्रेम पर ज़रा रोक लगा दें और जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी अपनी नज़र दौड़ाएं तो उनके लेखन में एक तरह का स्थायित्व और संतुलन आ जाएगा और अपने लेखन में साफ़गोई के बल पर वो अपने लिए साहित्य में एक अच्छा स्थान बना पाएंगी."
इस्मत के लेखन की ख़ासियत थी युवा लड़कियों, महिलाओं और नौकरानियों के अंतर्मन को लोगों के सामने रखना. चुग़ताई की सशक्त महिला किरदार वो हैं जो वर्तमान मूल्यों पर सवाल उठाती हैं और उनके ख़िलाफ़ विद्रोह करती हैं.
ऑकलैंड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर कार्लो कोपोला ने उनसे एक बार सवाल पूछा था कि उनकी इस बेबाकी का राज़ क्या है? इस्मत का जवाब था, "मुझे इसकी सीख मेरे परिवार से मिली है. हम सब लोग, मेरे पिता, मेरे भाई बहुत स्पष्टवादी रहे हैं. हमारे यहाँ ये नियम नहीं था कि महिलाएं और पुरुष अलग-अलग समूहों में बैठें. मेरे पिता बहुत खुले विचारों वाले शख़्स थे."
इस्मत चुग़ताई के लेखन के एक और पहलू की तरफ़ आलोचकों का ध्यान गया था, वो थी उसकी गति. मशहूर लेखक कृष्ण चंदर ने उनके गद्य के बारे में लिखा था, "चुग़ताई के उपन्यास हमें एक घुड़दौड़ की याद दिलाते हैं जिसमें फ़ुर्ती है, गति है, तत्परता है. ऐसा लगता है कि पूरा उपन्यास दौड़ा चला जा रहा है."
"उसके वाक्य, प्रतीक, रूपक, आवाज़ें. चरित्र, भावनाएं और अनुभूति एक आँधी की रफ़्तार से कुलाचें भरते हुए दिखाई देते हैं. कभी-कभी तो पाठक को लगता था कि वो पीछे छूटता जा रहा है और वो दिल ही दिल में लेखिका को कोसता था कि ये औरत इतनी जल्दी में क्यों है."
मशहूर उर्दू लेखिका क़ुर्रतुल ऐन हैदर इस्मत को 'लेडी चंगेज़ ख़ान' कह कर पुकारती थीं. उनकी नज़र में वो एक ऐसी घुड़सवार और तीरंदाज़ थीं जिनका निशाना कभी नहीं चूकता था.
क़ुर्रतुल ऐन हैदर लिखती हैं, "इस्मत आपा बहुत स्नेही, मुखर, स्पष्टवादी, ज़िद्दी और मज़ाकिया महिला थीं."
उनके बारे में एक क़िस्सा मशहूर है. मशहूर शायर जाँनिसार अख़्तर के निधन पर चारों तरफ़ ग़मी का माहौल था. एक महिला जो अपने-आप को उनकी बहन बताती थी, ज़मीन पर लेटकर रो रही थी. एक महिला कह रही थी, "विधवा को बुलाओ. उसकी चूड़ियाँ तोड़ो."
क़ुर्रतुल ऐन हैदर 'कलियाँ' पत्रिका में छपे अपने लेख 'लेडी चंग़ेज़ ख़ाँ' में लिखती हैं, "कुछ देर तो इस्मत आपा ये सब बर्दाश्त करती रहीं. फिर वो उस महिला की तरफ़ मुड़कर जो जाँनिसार अख़्तर की पत्नी ख़दीजा की चूड़ियाँ तोड़ने पर उतारू थीं, ज़ोर से चिल्लाईं- हर बार एक औरत को ही किसी की विधवा कह कर क्यों पुकारा जाए? एक मर्द को विधुर कहकर क्यों नहीं पुकारा जाता? विधुर होने के बाद उसकी घड़ी और चश्मा क्यों नहीं तोड़ दिया जाता?"
इस्मत की सोच आम लोगों से बिल्कुल अलग थी. उनकी बेटी ने बैंगलोर में एक हिंदू लड़के से कोर्ट में शादी कर ली. उसने उन्हें फ़ोन पर बताया कि उसके ससुराल वाले एक धार्मिक रस्म भी चाहते हैं जिसके लिए उनका वहाँ मौजूद रहना ज़रूरी है.
इस्मत तुरंत बैंगलोर पहुंच गईं. वहाँ से लौटकर उन्होंने अपने अनुभव लिखे, "मैं तड़के उठ गई थी. पूरा घर सोया पड़ा था. इस बीच उनका पंडित आ पहुंचा. उसने कहा, रस्म का मुहूर्त निकला जा रहा है और कोई भी यहाँ मौजूद नहीं है."
"मैंने कहा, पंडितजी, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? मैं आपके लिए पूजा की शुरुआत कर सकती हूँ. मैं पंडित के सामने बैठ गई. पंडित ने कहा, 'मैं मंत्र पढ़ूँगा. उसके बाद आपको अग्नि में चावल डालने होंगे.' मैं चावल डालती रही. थोड़ी देर में वहाँ घर के सारे लोग जमा हो गए."
अंतिम संस्कार भी अलगइस्मत हमेशा कहा करती थीं कि उन्हें क़ब्र से डर लगता है. "वो आपको मिट्टी के नीचे दबा देते हैं. आपको घुटन महसूस होती है. मैं चाहूँगी कि मुझे मेरी मौत के बाद जलाया जाए."
क़ुर्रतुल ऐन हैदर लिखती हैं, "इस्मत को इसके लिए दाद देनी होगी कि वो जो कहती थीं, करके भी दिखाती थीं. जब उनकी मौत के बाद मजरूह सुल्तानपुरी और कई दूसरे लोग चंदनवाड़ी क़ब्रिस्तान पहुंचे तो उन्होंने पाया कि उनके पार्थिव शरीर को पहले ही दाहगृह में जलाया जा चुका है. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि उनकी मौत के बारे में किसी को न बताया जाए और उन्हें तुरंत श्मशान ले जाया जाए."
इस्मत को नज़दीक से जानने वाले उपेंद्रनाथ अश्क मानते थे कि वो न सिर्फ़ पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थीं बल्कि बहुत ही खुले विचारों वाली महिला थीं.
अश्क ने लिखा था, "उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखने की वकालत करना, देश के विभाजन को अंग्रेज़ों का रचा षड्यंत्र मानना, इस्लाम में विश्वास होने के बावजूद पुनर्जन्म की अवधारणा में यकीन करना और मृत्यु के बाद अपने शरीर को दफ़नाने के बजाए, जलाने के लिए कहना, उन्हें आम लोगों से अलग करता था."
"सज्जाद ज़हीर और महमूद-उज़-ज़फ़र के अलावा, किसी मुस्लिम लेखक को धार्मिक पूर्वाग्रहों से पूरी तरह मुक्त देखा है तो वो हैं इस्मत चुग़ताई."
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इस्मत को एक और वजह से ख्याति मिली और वो थी अपने भाई अज़ीम बेग चुग़ताई पर लिखे लेख 'दोज़खी' से.
उपेंद्रनाथ अश्क लिखते हैं, "इस्मत ने तेज़ाब से लिपटे सुर में अपने भाई का जीवंत वर्णन किया है. उनके भाई हालांकि टीबी के मरीज़ थे लेकिन पूरे घर को अपनी निष्ठुरता की वजह से तनाव में रखते थे."
"इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि वो अपने भाई के बारे में सोचती थीं कि उसका नर्क में जाना तय है लेकिन इस्मत ने जिस हमदर्दी, कोमलता और स्नेह से उस शख़्स के मानस पटल का चित्रण किया है वो दुर्लभ है. मैंने उस अकेले लेख से आत्मवृतांत लिखने के बारे में बहुत कुछ सीखा है."
जब इस्मत का लेख 'दोज़खी' दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'साक़ी' में प्रकाशित हुआ था तो सआदत हसन मंटो की बहन ने उनसे कहा था, "सआदत, इस्मत कितनी अशिष्ट महिला है. उसने अपने स्वर्गीय भाई तक को नहीं बख़्शा और उसके बारे में कितनी ख़राब बातें लिख डालीं.''
मंटो ने अपनी बहन को जवाब दिया था, ''अगर तुम मेरे बारे में इस तरह का लेख लिखने का वादा करो तो मैं इसी समय मरने के लिए तैयार हूँ.''
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