नई दिल्ली: आज गुरुवार को बिहार विधानसभा चुनाव के पहले फेज की वोटिंग है। वोट डालने के बाद पोलिंग बूथ पर ही उंगली पर नीली स्याही लगाई जाती है। यह स्याही इस बात का प्रमाण होती है कि वह शख्स वोट डाल चुका है। एक बार लगने के बाद यह स्याही पहले नीली और फिर गहरे काले रंग की हो जाती है। इसका रंग हटने में एक महीने से ज्यादा समय तक लग जाता है।
चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही भारत में दो जगहों पर बनती है। हैदराबाद की रायडू लेबोरेटरी और मैसूर (कर्नाटक) में स्थित मैसूर पेंट्स एंड वॉर्निश लिमिटेड (MPVL) कंपनियां इसे बनाती हैं। चुनाव आयोग मैसूर में बनी स्याही का इस्तेमाल करता है। साल 1962 में हुए चुनाव में पहली बार इस स्याही का इस्तेमाल किया गया था। यही कंपनी भारतीय नोटों की छपाई में इस्तेमाल होने वाली स्याही भी बनाती है। वहीं हैदराबाद में बनने वाली स्याही कई देशों में भेजी जाती है।
कितना आता है खर्च?इस स्याही की एक शीशी 10mg की होती है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के दौरान हर शीशी की कीमत 174 रुपये थी। एक शीशी से 700 मतदाताओं की उंगली पर स्याही लगाई जा सकती है। ऐसे में एक वोटर की उंगली पर स्याही लगाने में करीब 25 पैसे का खर्च आता है। कंपनी स्याही वाली कांच की शीशियों की जगह मार्कर पेन बनाने का विकल्प भी तलाश रही है। यह प्रोडक्ट अभी भी डेवलपमेंट स्टेज में है।
सार्वजनिक नहीं किया गया फॉर्मूलाउंगली पर लगने वाली इस स्याही को बनाने में सिल्वर नाइट्रेट का इस्तेमाल होता है। इसके अलावा इसमें कुछ और केमिकल भी मिलाए जाते हैं। यह स्याही उंगली पर लगते ही 20 से 30 से गहरा नीला निशान छोड़ देती है। बाद में यह निशान काला हो जाता है। स्याही में मौजूद सिल्वर नाइट्रेट शरीर में मौजूद सोडियम से मिलकर सोडियम क्लोराइड बनाता है। इससे नीली रंग की स्याही धीरे-धीरे काली हो जाती है। पानी के संपर्क में आते ही यह गाढ़ी होती है। ऐसे में इस पर साबुन का भी असर नहीं होता।
नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) ने चुनाव आयोग को ये फॉर्मूला दिया था। इस स्याही को बनाने का पूरा फॉर्मूला कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। साथ ही किसी भी दूसरी कंपनी को इसे बनाने की इजाजत भी नहीं है।
कई देशों को निर्यात होती है स्याहीचुनाव आयोग के मुताबिक वोटिंग के बाद मतदाता की उंगली पर इस्तेमाल होने वाली स्याही कई देशों में निर्यात की जाती है। इनमें कनाडा, घाना, नाइजीरिया, मंगोलिया, मलेशिया, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका और मालदीव सहित 25 से अधिक देश शामिल हैं।
चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही भारत में दो जगहों पर बनती है। हैदराबाद की रायडू लेबोरेटरी और मैसूर (कर्नाटक) में स्थित मैसूर पेंट्स एंड वॉर्निश लिमिटेड (MPVL) कंपनियां इसे बनाती हैं। चुनाव आयोग मैसूर में बनी स्याही का इस्तेमाल करता है। साल 1962 में हुए चुनाव में पहली बार इस स्याही का इस्तेमाल किया गया था। यही कंपनी भारतीय नोटों की छपाई में इस्तेमाल होने वाली स्याही भी बनाती है। वहीं हैदराबाद में बनने वाली स्याही कई देशों में भेजी जाती है।
कितना आता है खर्च?इस स्याही की एक शीशी 10mg की होती है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के दौरान हर शीशी की कीमत 174 रुपये थी। एक शीशी से 700 मतदाताओं की उंगली पर स्याही लगाई जा सकती है। ऐसे में एक वोटर की उंगली पर स्याही लगाने में करीब 25 पैसे का खर्च आता है। कंपनी स्याही वाली कांच की शीशियों की जगह मार्कर पेन बनाने का विकल्प भी तलाश रही है। यह प्रोडक्ट अभी भी डेवलपमेंट स्टेज में है।
सार्वजनिक नहीं किया गया फॉर्मूलाउंगली पर लगने वाली इस स्याही को बनाने में सिल्वर नाइट्रेट का इस्तेमाल होता है। इसके अलावा इसमें कुछ और केमिकल भी मिलाए जाते हैं। यह स्याही उंगली पर लगते ही 20 से 30 से गहरा नीला निशान छोड़ देती है। बाद में यह निशान काला हो जाता है। स्याही में मौजूद सिल्वर नाइट्रेट शरीर में मौजूद सोडियम से मिलकर सोडियम क्लोराइड बनाता है। इससे नीली रंग की स्याही धीरे-धीरे काली हो जाती है। पानी के संपर्क में आते ही यह गाढ़ी होती है। ऐसे में इस पर साबुन का भी असर नहीं होता।
नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) ने चुनाव आयोग को ये फॉर्मूला दिया था। इस स्याही को बनाने का पूरा फॉर्मूला कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। साथ ही किसी भी दूसरी कंपनी को इसे बनाने की इजाजत भी नहीं है।
कई देशों को निर्यात होती है स्याहीचुनाव आयोग के मुताबिक वोटिंग के बाद मतदाता की उंगली पर इस्तेमाल होने वाली स्याही कई देशों में निर्यात की जाती है। इनमें कनाडा, घाना, नाइजीरिया, मंगोलिया, मलेशिया, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका और मालदीव सहित 25 से अधिक देश शामिल हैं।
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